सनातन(हिन्दू) धर्म

सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है। “वसुधैव कुटुम्बकम्” सनातन धर्म का मूल संस्कार तथा विचारधारा है, इसका अर्थ है- धरती ही परिवार है (वसुधा एव कुटुम्बकम्)

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ।
अर्थ:- जो लोग ’धर्म’ की रक्षा करते हैं, उनकी रक्षा स्वयं हो जाती है। इसे ऐसे भी कहा जाता है, ‘रक्षित किया गया धर्म रक्षा करता है’, जो धर्म की रक्षा करता हैं, धर्म उसकी रक्षा करता हैं ।
वर्तमान युग में सनातन धर्म व संस्कृति की रक्षा करना हम सबका परम् कर्तव्य हैं ।

गौमाता व प्रकृति

‘गावो विश्वस्य मातरः’ गौमाता इसलिए पूजनीय हैं क्योंकि वो हमारे सनातन(हिंदू) धर्म, संस्कृति की धुरी हैं । गौमाता का वर्णन वेदों, शास्त्रों में हैं, इसकी महिमा अनन्त हैं, गौमाता सर्वदेवमयी है । अथर्ववेद में रुद्रों की माता, वसुओं की दुहिता, आदित्यों की स्वसा और अमृत की नाभि-संज्ञा से विभूषित  किया गया है। बताया गया हैं कि गौमाता में 33 कोटि देवताओं का वास हैं, उनके पैरों के नीचे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष समाहित हैं । उसकी पीठ में ब्रह्मा, गले में विष्णु और मुख में रुद्र आदि देवताओं का निवास है । इस प्रकार सम्पूर्ण देवी-देवताओं की आराधना केवल गौ माता की सेवा से ही हो जाती है । गौ सेवा भगवत् प्राप्ति के अन्य साधनों में से एक है । जहां भगवान मनुष्यों के इष्टदेव है, वही गौ को भगवान के इष्टदेवी माना है । अत: गौ सेवा से लौकिक लाभ तो मिलतें ही हैं पारलौकिक लाभ की प्राप्ति भी हो जाती है । स्वयं भगवान श्री कृष्ण भी गौ की सेवा व रक्षा करते थे, इसलिए वो गोपाल कहलाये । प्रकृति में समस्त प्राणियों की सेवा व रक्षा हो, प्रकृति बचेगी तभी हम बचेंगे। प्रकृति व गौमाता की रक्षा व सेवा करना हमारा परम कर्तव्य हैं ।

 

शिक्षा व संस्कार

आज के इस युग में शिक्षा का बहुत महत्व हैं, शिक्षा के बिना जीवन अधूरा हैं । शिक्षा एक ऐसा सूरज है जो अपना प्रकाश मनुष्य पर डालता है। और इस से प्रवर्तित किरणें न केवल परिवार, समाज, देश बल्कि सारी दुनियाँ को चमकाती है। शिक्षा मनुष्य के अंदर एक ऐसा इत्र है जो अपनी खुशबु से मानव समाज को सुगन्धित करती रहती है।  शिक्षा हमें जीवन जीने की उच्चतम शैली सिखलाती है। यह मनुष्य में अच्छे चरित्र का निर्माण करती है।
शिक्षा के साथ-साथ संस्कार भी होना बहुत जरूरी हैं, एक हाथ में शिक्षा लेकर चलते हो तो दूसरे हाथ में संस्कार लेकर ।
दोनों साथ होंगे तो जीवन महान बनेगा । हमारे जीवन में सद्गुणों व संस्कारों का समावेश हो, पवित्रता हो, जीवन चरित्रवान व सदाचारी होना चाहिए,
जीवन में कितनी ही विकट परिस्थितियाँ क्यों ना आये, निराशावादी न बनें।
सकारात्मक सोच व ऊर्जावान जीवन जियें। संघर्ष के साथ जीवन जियें, एक दिन मंजिल जरूर हासिल होगी।

ईश्वर भक्ति

भक्ति हमेशा निष्काम भाव से होनी चाहिए । कामना रहित भाव ईश्वर के प्रति हो, भगवान भक्त की भक्ति, भाव व प्रेम के भूखे होते हैं, प्रेम, भाव, भक्ति, करूणा से ही परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता हैं । हर क्षण परमात्मा का ही चिंतन हो, उन्हीं का स्मरण, प्राणिमात्र में उन्हीं का दर्शन हो। गुरू व सन्तों के सानिध्य में सत्संग, अमृत वचन से अन्तःकरण(मन) शुद्ध व निर्मल होता हैं,
जिसका अन्तःकरण, मन, चित निर्मल व साफ हो, वो भगवान को पा सकता हैं।
प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं।

“श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥”
श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

|| Pujye Gurudev ||

                                  गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
                               गुरु साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः

गुरू की महिमा अपार है। उसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता। वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कवि, सन्त, मुनि आदि सब गुरू की अपार महिमा का बखान करते हैं। शास्त्रों में ‘गु’ का अर्थ ‘अंधकार या मूल अज्ञान’ और ‘रू’ का अर्थ ‘प्रकाश’ बताया गया है, जिसका अर्थ ‘अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला’ अर्थात अज्ञान को मिटाकर ज्ञान का मार्ग दिखाने वाला ‘गुरू’ होता है। ऐसे गुरूवरों के श्रीचरणों में कोटि कोटि प्रणाम, वंदन…
हमारे पुज्य गुरूदेव श्रद्धेय संत श्री कृपारामजी महाराज ने अपने गुरूवर श्री राजारामजी महाराज की शरण में आकर मात्र साढ़े चार साल की अल्पायु में संत जीवन अपनाकर सनातन(हिन्दू) धर्म, देश, संस्कृति, गौमाता व मानवता की रक्षा के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया ।

गुरूदेव निश्वार्थ भाव व विश्व शांति के लिए श्रीमद भागवत कथा, श्रीराम कथा, शिवमहापुराण, नैनी बाई रो मायरो व अपने प्रेरणादायक सत्संग-प्रवचनों से देश- विदेश में लाखों-करोड़ों लोगों को लाभान्वित कर उनका मार्गदर्शन किया, उन्हें भगवद भक्ति से जोड़ा । नशा व अन्य व्याप्त कुरूतियों को मिटाकर अपने दिव्य प्रवचनों व योग से युवाओं में नई क्रांति का संचार किया ।

गुरूदेव द्वारा परमार्थिक सेवाएं भी चलती हैं , आश्रम सेवा, संत सेवा, गौसेवा(गौशाला), पर्यावरण(प्रकृति) सेवा, शिक्षा सेवा, राष्ट्रसेवा, गरीबों को भोजन व जरूरतमंद लोगों की मदद आदि ।

संत-महात्माओं व शूरवीरों की पावन पवित्र भक्तिमय धरा, मरूभूमि, मरूस्थल मारवाड़ माटी में परम पुज्य श्रद्धेय बाल संत श्री सत्यप्रकाशजी महाराज का जन्म (2/2/1996) सनातन पञ्चाङ्ग के अनुसार विक्रम संवत 2052, बसन्तोत्सव, चैत्र मास, कृष्ण पक्ष, दूज को ब्रह्म मुहूर्त की शुभ वेला पर हुआ, आपने बाल्यावस्था में गुरूवर संत श्री राजारामजी महाराज व श्रद्धेय संत श्री कृपारामजी महाराज से संन्यास दीक्षा ली, शिष्य बने और गुरू शरण में रहने लगे, आपश्री निश्वार्थ सनातन धर्म, भक्ति का प्रचार प्रसार व जनकल्याण की भावना से श्रीमद भागवत कथा, शिव महापुराण, श्री रामकथा, नैनी बाई रो मायरो, सत्संग-प्रवचन, भजन-संध्या, ध्यान योग शिविर आदि पुनीत कार्य करके जन-जन को लाभान्वित कर रहे हैं ।

 

|| श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेवा ||

◆ कार्यक्रम के लिए आवेदन करें ◆